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Thursday, August 5, 2010

और लिखने बैठ गया.........

जब टाइम से खाना खा लिया.. अपना ईमेल  देख लिया, दोस्तों से चैट  कर लिया.. दोस्तों के कुछ शिकवे- गिले दूर कर लिये .. धीमे......... धीमे.. सब आफ लाइन होने लगते हैं......

प्रेमी प्रेमिका को फोन लगते ........ लगाते.......... जब ना लगे...

तब हम जैसे एकाकी लोग सच में अपने अकेलेपन को महसूस करते है ..
समय कटते ना कटता हो.. तो संगीत .... अपने पसंद का   सुन लिया.. पर फिर भी आँखे खुली रहें तो...
यकायक याद आता है..   माँ का आंचल... छुट्टियों में  बिताए पल, कुछ पूरे अधूरे किये  काम.. जिसको पूरा करना... अब उनकी जिम्मेवारी बन गयी है... लगता है जैसे फ़िल्म देख रहा था अब तक, जब घर कि याद  आई तो पता चला तीन घंटे का शो.. खत्म  हो गया  हो .....

 सच में  जो जीवन हम अपने कार्यस्थल पर जी रहें होते हैं... वो तो Reel life hi hai..(ऑफिस छोडते ही भूल जाओ). real life  तो अब चल रही  है...
जैसे सारी बातें  rewind  होने लगाती हैं... बाबूजी बोलते थे नालायक .. माँ भी जब स्कूल से लौट  कर आती तो मोहल्ले से शिकायत ही मिलती थी...
  पर अब .....
 आते समय बाबू जी रो रहें थे... बाबूजी ...ये पापा लोग दिखने में  जितने सख्तजान होते है ना,  अंदर से उतने ही मुलायम..... माँ तो हिम्मती होती है...

 माँ, बाबूजी... और अपना  घर ......


............और लिखने बैठ गया.........



माँ, बाबूजी बचपन   ला  दो.... आप याद नहीं आते .... आपको अपने साथ जीता हूँ  मैं ..........



5 अगस्त 2010,गुरुवार
गौचर (उत्तराखंड)

3 comments:

  1. sach hi likha sir apne,vo khali pal jo asliyat mei khali nhi hote, bhare hote hai kathi-meethi yaadon se, hume apno se duur rehte hue b unke pass rhte hai

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  2. dunia main sab kuch haasil kar sakte ho lekin maa babujee aur bachpan to nasib walo ko hi milta hai. really so touchy n emotional.

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